बढ़ती हुई आबादी मानव जाति के लिये भस्मासुर है! तो जनसंख्या दिवस पर सिर्फ चिंतन-मंथन ही क्यो?

एज़ाज़ क़मर, डिप्टी एडिटर-ICN
नई दिल्ली: पिछले तीन दशको से हर 11 जुलाई को जनसंख्या दिवस के अवसर पर समाचार पत्रो मे बड़े-बड़े विज्ञापन और लेख छपते है,फिर दोपहर से कार्यक्रम शुरू हो जाते है जिसमे बुद्धिजीवी तथा समाज के सम्मानित व्यक्ति जमकर भाषण-बाजी करते है और चाय-नाश्ता या भोजन करने के बाद सब अपने-अपने घर जाकर सो जाते है।इन लोगो का दायित्व था कि घर जाकर अपने परिवृत के मनुष्यो को जनसंख्या नियंत्रण विषय पर शिक्षित तथा प्रशिक्षित करते,लेकिन यह बुद्धिजीवी जनसंख्या नियंत्रण विचार को एक आंदोलन का रूप देने के बजाय दूसरे समुदायो को कोसने अथवा छींटाकशी करने और सरकार की आलोचना करने मे अपना समय गंवाते है,इसलिये जनसंख्या विस्फोट की समस्या किसी पिशाच की तरह हमारे निकम्मेपन-दोगलेपन का मज़ाक उड़ाकर हमे डराती रहती है।
मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या उसकी मानसिक संकीर्णता अथवा दोगलापन है, क्योकि मानव जाति की अधिकतर समस्याएं अज्ञानता और अशिक्षा से जुड़ी हुई है,किंतु दोगलापन (दोहरा मापदण्ड) की समस्या मुख्यत: शिक्षित और ज्ञानी वर्ग से ही जुड़ी हुई है चूँकि यह अपने हितो की पूर्ति और कुतर्को को सही साबित (सत्यापित) करने के लिये जानबूझकर मानव-जाति को पथभ्रष्ट करते है।
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक मुस्लिम बहुल (प्रतिशत) क्षेत्र रामपुर मे हुआ,यह 50% से अधिक मुस्लिम आबादी वाला उत्तर प्रदेश का एकमात्र ज़िला है,क्योकि स्वतंत्रता से पहले यह 95% मुस्लिम आबादी वाली रियासत (रामपुर स्टेट) हुआ करती थी इसलिये मुस्लिम जनसंख्या अधिक थी,किंतु विभाजन के समय बड़ी संख्या मे मुसलमान पाकिस्तान चले गये और लगभग 10% शरणार्थियो को यहां पर बसा दिया गया  जिससे जनसंख्या मे संतुलन बन गया।
चार दशक पहले मेरे बचपन मे नगरपालिका क्षेत्र के अंतर्गत लगभग हर तीसरा घर पठान जाति का हुआ करता और हर तीसरे पठान घर मे हरी-नीली-कुंजी आंखो वाले लोग हुआ करते थे,किंतु आज उसी नगरपालिका क्षेत्र मे पठानो की आबादी सिमटकर मात्र 20% पर पहुंच गई और हरी-नीली-कुंजी आंखो वाले लोगो खोजने के लिये कम से कम तीन दर्जन घरो का भ्रमण करना पड़ेगा।
जब इस गम्भीर विषय पर कोई भी व्यक्ति लिखता-बोलता है तो उसे भारत मे नस्लवादी और संकीर्ण मानसिकता वाला करार दिया जाता है, किंतु 2020 के जनसंख्या दिवस के अवसर पर प्रकाशित आंकड़े बताते है कि विश्व मे गोरी चमड़ी वालो की संख्या सिमटकर 10% रह गई है और लाल बालो (ब्लॉंड) वाले गोरो की संख्या तो नाम मात्र बची है,इसलिये इस गंभीर विषय पर चिंतन-मंथन आवश्यक हो जाता है,क्योकि अगर इस स्थिति मे सुधार नही हुआ,तो क्या अगली पाँच (5) शताब्दियो के अन्दर विश्व मे गोरी चमड़ी के लोगो की संख्या लगभग समाप्त नही हो सकती है?
क्या हम रटे-रटाये वक्तव्यो-मुहावरो के आधार पर किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाकर उसे नुकसान नही पहुंचाते है?क्या हम भेदभाव मिटाने की आड़ मे गोरी चमड़ी वालो के साथ भेदभाव नही कर रहे है?
दोगलापन और मानसिक संकीर्णता की समस्या भारत मे चरम सीमा पर है, क्योकि यदि कोई भारतीय अपने देश के लिये “ग़रीब-देश” शब्द का उपयोग करे तो उसे “अर्बन-नक्सली” की उपाधि देकर देशद्रोही करार दे दिया जाता है,किंतु क्या किसी व्यक्ति को देशद्रोही कहकर उसकी आवाज़ दबाने से देश की समस्याओ का हल हो जायेगा?
क्या साम्यवाद की हत्या कर देने से देश मे ग़रीबी की समस्या खत्म हो जायेगी?
क्या पूरी दुनिया पर पूंजीवादी व्यवस्था थोप देने से विश्व का हर व्यक्ति धनवान हो जायेगा?
क्या 90 के दशक मे भारत के समाजवादी व्यवस्था से पूंजीवादी व्यवस्था की तरफ छलांग लगाने से भारत मे निर्धनता की समस्या का समाधान हो गया?
कुछ घोर पूंजीवादी उद्योगपतियो के समर्थक कुतर्क करेगे कि भारत मे संपन्न मध्यमवर्ग इसी पूंजीवादी व्यवस्था की देन है, लेकिन इन कुतर्कियो से पूछो कि क्या इन्होने गंभीरता और गहराई से पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणामो का अध्ययन किया है?
तब यह कुतर्की बग़ले झांकते नज़र आते है,क्योकि जब पूंजीवादी व्यवस्था शुरू होती है तो शुरुआती दशको मे रोज़गार बढ़ने से आर्थिक रूप से निम्न वर्ग के कुछ लोग मध्यम वर्ग मे पहुंच जाते है और मध्यम वर्ग के चंद लोग उच्च वर्ग मे पहुंच जाते है,किंतु जब एक बार पूंजीवादी व्यवस्था चरम सीमा पर पहुंचती है,तो फिर धनवान पहले से अधिक अमीर हो जाता है तथा निर्धन पहले से अधिक ग़रीब हो जाता है, यही इस पूंजीवादी व्यवस्था का कुचक्र है जो लोगो को शुरू मे अपनी तरफ आकर्षित करके मूर्ख बनाता है।
जनसंख्या वृद्धि को लेकर पूरे विश्व मे दोहरा मापदंड अपनाया जा रहा है, क्योकि पश्चिमी देशो के विकसित होने के कारण उन्हे मज़दूर चाहिये इसलिये वह आज जनसंख्या वृद्धि के समर्थन मे कुतर्क कर रहे है, कुछ शताब्दियो पहले तक यही लोग जनसंख्या घटाने की बात करते थे,हालांकि “वन चाइल्ड” की पॉलिसी अपनाकर चीन ने बड़ी सफलता से जनसंख्या पर नियंत्रण पा लिया था किंतु आज उसे भी जनसंख्या बढ़ाने पर विचार करना पड़ा रहा है।
मुद्दा जनसंख्या कम करके नियंत्रण पाने या उसे बढ़ाने का नही है,बल्कि मुद्दा “जनसंख्या नियंत्रण विषय पर दोहरे मापदंड” को लेकर है,क्योकि चीन आज अपनी आबादी बढ़ाना चाहता है,किंतु चीन मे मौजूद अल्पसंख्यक समुदायो विशेषकर उइगुर मुस्लिमो पर जनसंख्या नियंत्रण के बहाने आबादी कम करने लिये दबाव डाला जा रहा है,जबकि चीन के शिंजियांग (Xinjiang) प्रदेश मे 1949 के वर्ष मे उइगुर मुस्लिमो की आबादी 98% से अधिक थी जो आज घटकर 40% रह गई है,क्या यह न्यायोचित है?
सभी मानवतावादी एवं लोकतंत्र समर्थक इसे अन्यायपूर्ण बतायेगे, किंतु इसी तरह की सोच भारतीय बहुसंख्यको के एक बड़े वर्ग मे पाई जाती है और हमारे पिता तुल्य वरिष्ठ संपादक प्रदीप माथुर साहब जैसे महान बुद्धिजीवियो और समाजसेवियो का एक बड़ा वर्ग पिछले तीन दशको से इस सोच के विरूद्ध संघर्ष कर रहा है,क्योकि वह यह समझाने का प्रयास करते है कि जनसंख्या धर्म से नही बल्कि शैक्षिक-सामाजिक और आर्थिक कारणो से बढ़ती है और “ग़रीबी का जनसंख्या वृद्धि से सीधे संबंध होता है”।
इस मुद्दे पर कुतर्को को लेकर मेरा अनुभव बहुत कड़वा रहा है,क्योकि उत्तर प्रदेश के सभी ज़िलो की तुलना मे मुसलमानो का जनसंख्या वृद्धि-दर सबसे कम मेरे ही ज़िला रामपुर मे है,जबकि यह उत्तर प्रदेश का सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला ज़िला है,इसलिये मेरा मत है कि जहां शिक्षा का अधिक प्रसार होगा वहां पर जनसंख्या स्वयं कम हो जायेगी।
मै वर्ष 1998 मे पश्चिमी भारत से वापस उत्तर प्रदेश आया फिर वर्ष 1999 मे शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ समाज-सेवा करने के इरादे से दिल्ली आ गया,क्योकि मेरा लक्ष्य किसानो के उत्थान के लिये काम करना था,इसलिये मै एडवोकेट “केसरी सिंह गुर्जर” साहब तथा अतुल अंजान जी जैसे कृषक नेताओ के साथ काम करने को बड़ा आतुर था,सौभाग्य से मुझे इन लोगो का स्नेह तथा आशीर्वाद तो मिला किंतु ज़्यादा काम करने का अवसर नही मिला परन्तु किसानो ने मुझे बहुत सम्मान दिया जिसका मै आज तक आभारी हूं।
मै किसानो के कल्याण के लिये कार्य करने वाले समाजसेवी महापुरुषो के साथ मेलजोल बढ़ा रहा था कि इसी बीच जनसंख्या दिवस आ गया जिसकी शुरुआत 11 जुलाई 1989 को हुई थी, फिर एक छोटी सी मीटिंग मे विचार-विमर्श करते हुये मै कठोर कानून बनाने का सुझाव दे रहा था, तभी एक 60 वर्ष से अधिक उम्र के बुज़ुर्ग अग्रवाल जी (बदला हुआ नाम) बीच मे तपाक से बोले कि “जनसंख्या वृद्धि का कारण मुसलमान है क्योकि वह योजनाबद्ध तरीके से आबादी बड़ाकर भारत पर क़ब्ज़ा करना चाहते है”।
मै उनकी इस अविवेकपूर्ण टिप्पणी को सुनकर हतप्रभ रह गया, किंतु मैने संयम के साथ उनसे कहा; कि “अगर आप पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गुर्जर बहुल क्षेत्र मे जायेगे तो वहां एक परिवार मे औसतन तीन (3) बच्चे मिलेगे फिर आगे पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुर्मी बहुल क्षेत्र मे जायेगे तो वहां एक परिवार मे औसतन चार (4) बच्चे मिलेगे फिर आगे बिहार के यादव बहुल क्षेत्र मे जायेगे तो वहां एक परिवार मे औसतन पाँच (5) बच्चे मिलेगे फिर आगे बंगाल के ब्राह्मण बहुल क्षेत्र मे जायेगे तो वहां एक परिवार मे औसतन छह (6) बच्चे मिलेगे इसलिये इस विषय को संप्रदायिकता का मुद्दा ना बनाएं क्योकि यह आर्थिक असुरक्षा तथा शैक्षिक-सामाजिक पिछड़ेपन से जुड़ा है”।यद्यपि उस वक्त मै राजनैतिक रूप से परिपक्व नही हुआ था और भावावेश मैने बिना प्रमाण प्रस्तुत किये जातिगत शब्द कहे थे जिसके लिये बाद मे मैने क्षमा-याचना भी करी,किंतु इसका सार यही था कि राष्ट्र-कल्याण से जुड़े किसी मुद्दे पर राजनीति नही करना चाहिये, क्योकि उत्तर प्रदेश मे सर्वाधिक शिक्षित जाति ब्राह्मण है फिर भी उसके बावजूद पिछले सात (7) दशको से ब्राह्मणो की औसतन जनसंख्या बारह (12) प्रतिशत के आसपास रहती है,हालांकि अगर सिर्फ शिक्षा का जनसंख्या नियंत्रण पर असर होता तो उत्तर प्रदेश मे ब्राह्मणो की जनसंख्या मात्र दो-तीन (2-3) प्रतिशत ही रह जाती थी,लेकिन यहां पर आर्थिक असुरक्षा जनसंख्या वृद्धि का कारण बनी हुई है।
उत्तर प्रदेश मे यह सोच पाई जाती है कि जितने अधिक हाथ होगे उतने अधिक रोज़गार मिलेगे फिर घर मे उतना ही अधिक धन आयेगा,इसलिये शिक्षित और अशिक्षित सभी समुदाय जनसंख्या बढ़ाने मे लगे हुये है,दूसरे उत्तर भारत के समाज मे तर्क दिया जाता है कि मृत-शरीर को ले जाने के लिये भी चार व्यक्तियो की आवश्यकता होती है इसलिये परिवार मे अधिक बच्चे होना चाहिये,किंतु कोरोना महामारी ने इस समस्या का भी समाधान कर दिया कि अब नगरपालिका वाले अथवा सरकारी कर्मचारी ही अंत्येष्टि कर देते है इसलिये बड़े परिवार की आवश्यकता नही है।
कोरोना महामारी के बाद विश्व की अर्थव्यवस्था चौपट होने से बेरोज़गारी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है,जिसके कारण पहली बार मानव जाति “अनाज की मांग-पूर्ति तथा धन की कमी के कारण जनसाधारण पर प्रभाव” शीर्षक/विषय को लेकर गंभीरता से सोच रही है,इसलिये बुद्धिजीवी वर्ग विशेषकर हम पत्रकार भी “अनाज की कमी से मृत्यु अथवा भुखमरी” जैसे विषयो के बारे मे जनता को गंभीरता से समझाकर अपना दायित्व निभाने का प्रयास कर रहे है,क्योकि भारत की जनसंख्या 2030 तक डेढ़ अरब हो जायेगी।
सरल शब्दो मे वर्णन किया जाये तो हमारी आबादी मे अभी भी हर दिन पचास हज़ार की वृद्धि हो रही है,इतनी बड़ी जनसंख्या को भोजन मुहैया कराने के लिये यह आवश्यक है कि हमारा खाद्यान्न उत्पादन प्रतिवर्ष 54 लाख टन से बढ़े,जबकि वह औसतन केवल 40 लाख टन प्रतिवर्ष की दर से ही बढ़ पाता है,इसलिये भविष्य मे हम अपनी आने वाली पीढ़ियो को अनाज मुहैया कराने मे सफल नही हो पायेगे तब समाज मे अराजकता फैल जायेगी।
आज विश्व की जनसंख्या सात अरब से ज़्यादा है जिसमे से अकेले भारत की जनसंख्या लगभग 1 अरब 35 करोड़ के आसपास है और भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है,हालांकि 1947 मे आज़ादी के समय भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी,किंतु परिवार नियोजन के कमज़ोर तरीको, अशिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के अभाव, अंधविश्वास और विकासात्मक असंतुलन के चलते आबादी तेज़ी से चार गुना बढ़ गई है।
फिलहाल भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या का साढ़े सतराह (17.5) प्रतिशत है,जबकि भूभाग के लिहाज़ से हमारे पास मात्र ढाई (2.5) प्रतिशत ज़मीन है और जीवन के लिये सबसे महत्वपूर्ण पेयजल (जल संसाधन) मात्र चार (4) प्रतिशत है,किंतु डरावना प्रश्न यह है कि 2050 तक देश की जनसंख्या लगभग पौने दो (1.75) अरब हो जाने संभावना है,कैसे तब बिना जल-भोजन के हमारी आने वाली पीढ़ियां जिंदा रह सकेगी?
क्या वह हमारी इस लापरवाही के लिये हमे माफ कर पायेगी?
अगर वह माफ भी कर दे तो क्या उनका जीवन सुरक्षित रह पायेगा?
हम गंभीर प्रश्नो का उत्तर ढूढने और गंभीर समस्याओ का समाधान खोजने के बजाय हिंदू-मुस्लिम का गेम खेल रहे है,उत्तर प्रदेश के एक मंत्री कह रहे है कि पाँच (5) बच्चे पैदा करो,तो एक सांसद कह रहे है कि दस (10) बच्चे पैदा करो,किंतु ग़ैर-ज़िम्मेदार लोगो को यह बात समझ मे नही आती कि जब “ग्लोबल वार्मिग” और “बढ़ती जनसंख्या के कारण” यह पृथ्वी ही नही बचेगी तो क्या सनातन और इस्लाम धर्म बच पायेगे?
1951 मे भारत की आबादी लगभग छत्तीस (36) करोड़ थी जिसका लगभग दसवां हिस्सा मुसलमान आबादी थी अर्थात भारत मे साढ़े तीन (3.5) करोड़ मुसलमान आबादी थी,किंतु 2011 की जनगणना के अनुसार देश की आबादी बढ़कर सवा अरब हो गई जिसमे मुसलमानो की आबादी साढ़े सतराह (17.5) करोड़ हो गई है,सरल शब्दो मे कहा जाये तो छह दशको (60 वर्ष) मे मुसलमानो की आबादी चौदह (14) करोड़ बढ़ गई तथा गैर-मुस्लिमो की आबादी मे सत्तर (70) करोड़ से अधिक की वृद्धि हुई,किंतु हमे यह ध्यान रखना चाहिये कि 1951 की जनगणना अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण थी क्योकि जम्मू कश्मीर मे सुचारू रूप से जनगणना नही हो पाई थी तथा पूर्वोत्तर के ईसाई आदिवासियो को हिंदू खाते मे लिख दिया गया था और पूर्वोत्तर के निवासी अधिकांश बंगाली मुसलमानो को हिंदू कॉलम मे लिख दिया गया था,इसलिये इन त्रुटियो के कारण ही पूर्व राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद का परिवार आज तक भुगतान भुगत रहा है।
डेढ़ सौ से अधिक देशो मे पाँच प्रतिशत (5℅) से अधिक जनसंख्या रखने वाले ईसाई समुदाय का विश्व जनसंख्या मे प्रतिनिधित्व मात्र तीस प्रतिशत (30%) है और सौ से अधिक देशो मे लगभग चार प्रतिशत (4℅) से अधिक जनसंख्या रखने वाले मुस्लिम समुदाय का विश्व जनसंख्या मे प्रतिनिधित्व मात्र पच्चीस प्रतिशत (25℅) है,फिर भी अकेले भारत से ही हिंदुओ का विश्व जनसंख्या मे प्रतिनिधित्व पन्द्रह प्रतिशत (15%) होता है जोकि एक बहुत बड़ी संख्या होती है,इसलिये इस मुद्दे पर राजनीति बंद होनी चाहिये क्योकि हीन-भावना (Inferiority Complex) पैदा करके बहुसंख्यको को डराना सिवाय वोट-बैंक की राजनीति तथा बहुसंख्यक-तुष्टीकरण (Majority Appeasement) के अलावा कुछ नही है।
सुंदर-सुंदर ग्राफिक चित्रो तथा बड़ी-बड़ी  तालिकाओ की माध्यम से “जनसंख्या वृद्धि के कारण और दुष्परिणाम” समझाने के बजाय अब कड़े कदम उठाने का समय आ गया है,लोकतंत्र मे वोट बैंक की राजनीति चलती रहेगी लेकिन आने वाली पीढ़ियो को जनसंख्या विस्फोट के विनाश से बचाने के लिये तुरंत कानून लाने की जरूरत है,किंतु प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एेसी पृष्ठभूमि से आते है जिनके यहां परिवारो मे बहुत अधिक बच्चे पैदा हुआ करते थे,इसलिये शायद वह कड़े कदम उठाने से बचे या फिर उसका राजनीतिकरण करे।चूँकि लोकतंत्र मे जनता ही जनार्दन होती है इसलिये जनता को सरकार के ऊपर संसद के अगले सत्र मे “जनसंख्या नियंत्रण कानून” (Papulation Control Act) लाने के लिये दबाव बनाना चाहिये या फिर न्यायालय मे पी०आई०एल० डालकर इस मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिये;
(१) अगर कोई व्यक्ति दो से अधिक बच्चो का पिता है तो वह और उसकी संताने भारत मे संसद/विधानसभा/नगरपालिका का सदस्य बनने के लिये अयोग्य घोषित होना चाहिये”।
(२) “दो बच्चो से अधिक का पिता या उसकी संताने सरकारी नौकरी के लिये अयोग्य घोषित होना चाहिये”।
(३) “दो बच्चो से अधिक का पिता या उसकी संताने सरकारी योजनाओ (Scheme) का लाभ लेने के लिये अयोग्य घोषित होना चाहिये”।
सरकारी अनुदान तथा सुविधा दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले लोगो को नही मिलना चाहिये तभी यह लोग सुधरेगे, वरना सिर्फ यह राजनीति करते रहेगे।
भिक्षावृत्ति भारत मे एक बड़ी समस्या है और माफिया इसकी आड़ मे करोड़ो रुपए का व्यापार कर रहा है,किंतु अनेक प्रयत्न करने के बावजूद हमारी सरकारे इसका समाधान नही खोज पाई है, इसलिये अब इसका सरल समाधान है कि सभी व्यस्क भिखारियो की नसबंदी कर दी जाये और उनके बच्चो को छीनकर अनाथालय मे भर्ती करा दिया जाये।
इच्छा मृत्यु के भावनात्मक मुद्दे पर भी बहुत राजनीति होती है,इसलिये अब इच्छा-मृत्यु की प्रक्रिया को भी सरल और सुगम बनाना चाहिए,ताकि बीमार, दिव्यांग और ग़रीब लोगो को अपनी समस्याओ से छुटकारा मिल जाये तथा राष्ट्र को अनुत्पादक जनसंख्या से छुटकारा मिल जाये।उपरोक्त सुझाव अमानवीय लग सकते है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा और आने वाली पीढ़ियो के कल्याण के लिये अगर कड़वी दवाई पीना भी पड़े तो हमे संकोच नही करना चाहिये,चूँकि राष्ट्रवादी वही व्यक्ति होता है जो अपने हितो से अधिक राष्ट्रहित को महत्वपूर्ण समझे,इसलिये जो व्यक्ति राष्ट्र-निर्माण तथा राष्ट्र के सुरक्षित भविष्य के लिये बलिदान देता है वही राष्ट्रवादी कहलाता है।
कुछ व्यक्ति मेरे उपरोक्त लिखित राष्ट्रहित के सुझावो को अपने राजनैतिक एजेंडे की पूर्ति के लिये अव्यवहारिक बताकर अस्वीकार कर सकते है,किंतु याद रखिये कि जिस तरह संकट मे मित्र की पहचान होती है,उसी तरह राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दे पर राष्ट्रवादी और देशद्रोही की पहचान होती है।चूँकि मेरे सुझाव धर्म-जाति-क्षेत्र से उठकर राष्ट्रहित के लिये है,इसलिये अगर कोई व्यक्ति इसे अस्वीकार करता है तो वह बुद्धिजीवी हो सकता है लेकिन राष्ट्रप्रेमी नही होगा,क्योकि मेरी तो अभिलाषा है;
“मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,

जिस पथ जावे वीर अनेक”।।।

एज़ाज़ क़मर (रक्षा, विदेश और राजनीतिक विश्लेषक)

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